कथा जाहरवीर श्री गोगा जी
जाहरवीर श्री गोगा जी का पूरा नाम महाराज मंडलीक जाहरवीर श्री गोगा जी है गोगा जी के भक्तों में हिन्दु, मुस्लिम तथा सिक्ख आदि सभी धर्मों के लोग शामिल है। गोगा जी किसी भी जाति या धर्म को नहीं मानते थे उनकी नज़र में हिन्दु, मुस्लिम तथा सिक्ख सभी समान थे। वे वचन के पक्के राजपूत योद्धा थे यहां तक की धर्म की पालना हेतु उन्होंने अपने मौसी के पुत्रों के सिर कलम कर दिये तथा माता ने दु:ख ग्रस्त हो गुस्से से कह दिया कि वह उनका भी मुंह नहीं देखना चाहती तो वे माता के वचन रखने हेतु जमीन में समा गये। आज भी धारणा है कि जो सच्चे मन से गोगा जी को याद करता है या विनती करता है तो गोगा जी उसकी मनोकामना अवश्य पूरी करते हैं।
भारत के विभिन्न प्रांतो में गोगा जी को अलग अलग नाम से जाना जाता है। सावन-भादों में गोगा मैड़ी, ददरेवा (चुरु) जिला हनुमानगढ़, राजस्थान में भारी मेला लगता है तथा देश के विभिन्न प्रांतों से लोग गोगा जी के दर्शनों के लिए आते हैं। कुछ मन्नतें मांगने आते हैं तथा कुछ मन्नत पूरी होने पर बाबा जी का शुक्रियाअदा करने आते हैं।
गोगा जी के सवैया स्थानीय भाषाओं में गौगा जी का गुणगान करते हैं। गौगा जी के जागरण में उनकी विभिन्न कथाओं का व्याख्यान किया जाता है। भजन गाए जाते हैं
गोगा जी का जन्म मध्यकालीन युग में राजस्थान के ददरेव (चरू) में राजा जेवर की पत्नी बाछल के गर्भ से गुरू गोरखनाथ के वरदान से भादो शुदी नवमी को हुआ था।
महाराज जेवर तथा माता बाछल नि:सन्तान थे राजा जेवर ने पुत्र प्राप्ति के लिए मन्दिरों तथा धर्मशालाओं का निर्माण करवाया, प्याऊ बनवाये, बाग लगवाए, दान पुण्य किये तथा भण्डारे किये, साधु सन्तों की सेवा एवं यज्ञ हवन करना अपनी दिनाचार्य मे शामिल कर लिया। जिसके प्रभाव से देवराज इन्द्र का आसन भी डोल गया तो उन्होंने महार्षि नारद को बुलाकर विनती की मृत्यु लोक में जाओ वहां पर महाराजा जेवर तथा माता बाछल को पुत्र प्राप्ति का उपाय बताओ।
महार्षि नारद मुनि वीणा बजाते हरि गुण गाते राजा जेवर के दरबार में आ पहुंचे। महाराज जेवर ने उनका बहुत आदर-सत्कार किया। महार्षि नारद ने बताया कि अगर तुम या तुम्हारी पत्नी नित्य नियम से सुबह-शाम गुरु गोरख नाथ जी के नाम की जोत जलाएँगे तो गुरु गोरख नाथ जी अपने चौदह सौ चेलों के साथ नगर-नगर घुमते एक दिन ददरेव नगरी आकार तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूरी करेंगे। महार्षि नारद अन्तरध्यान हो गये।
राजा जेवर ने महल में आकर माता बाछल को सारी बात बताई। तथा माता से अनुग्रह किया की यह कार्य आपको ही करना है माता ने सहर्ष गुरु गोरख नाथ जी की जोत जलाना स्वीकार किया तथा नित्यनियमानुसार गुरु जी की आराधना में स्वयं को समर्पित कर दिया। जब माता बाछल को गुरु गोरखनाथ जी की नित्य नियम से जोत जलाते व पुजा-अर्चना करते काफी समय हो गया तब एक दिन गौड़ बंगाले प्रांत के वन में तपस्यलीन गुरु जी की समाधी टुटती है तो उन्हें अपनी योग-माया द्वारा पता चलता है कि माता बाछल एक लम्बे समय से उनकी पूजा-अर्चना में लीन है। गुरु गोरखनाथ जी तुरन्त अपने चेलों को तुरन्त बागड़ देश की ओर पलायन करने का आदेश देते हैं। तथा नगर-नगर भ्रमण करते हुए रात के समय ददरेवा पहुंच गये तथा सुखे हुए नौलखा बाग में एक उंचे स्थान पर धूनी रमा कर बैठ गये। यात्रा की थकान के कारण चेले तुरन्त ही ठंडी बालू के आगोश में गहन निद्रा में डूब गये परन्तु जब सुबह हुई तो तेज धूप उन पर आग बरसाने लगी, हर तरफ सुखा ही सुखा था बेहाल हो जल की तालाश में निकले कुआं तो मिला पर जल नही। हाताश हो गुरु गोरक्षनाथ जी की शरण में आ अपनी व्यथा सुनाई।
गुरु जी ने उन्हे आदेश दिया तथा कहा कि यह धुनी की भभूती नौलखे बाग में पेड़ पौधों पर अलख निरंजन का उच्चारण करते हुए गिरा देना तथा औघड़ नाथ जी से अपनी झोली से भस्मी देते हुए कहा कि यह सुखे कुएं में अलख निरंजन का उच्चारण करते हुए गिरा देना।
भभूति के प्रभाव से नौलखा बाग जो सुखा पड़ा था हरा-भरा हो गया तथा गुरु जी द्वारा दी भस्मी से कुएं में मीठे, शीतल जल का एक उफान आया जिससे जल कुएं की हद से तीव्र गति बाहर आने लगा। जिस पर ओघड़नाथ जी घबरा गए तथा कहा तुम्हें मेरे गुरु गोरख नाथ जी की आन जो हद से बाहर निकले, अपनी हद में रहो। औघड़नाथ जी के वचन सुनकर कुएं का जल अपनी हद में ही रह गया। सभी चेले खुश होकर गुरु जी की जै जैकार करने लगे।
महारानी की दासी मूंगादे किसी कार्य से जब नौलखे बाग की तरफ आई तो वह हरा-भरा बाग देखकर हैरान हो गई। जिज्ञासा वश वह बाग में प्रवेश किया तो पाया कि कोई संत अपने चेलों सहित धुना रमाये बैठा है। उसने एक चेले से पुछा तो उसने बताया की गुरु गोरखनाथ जी अपने चौदह सौ चेलों के साथ गौड़ बंगाले प्रांत से आए हैं। मूंगादे की खुशी का ठिकाना न रहा। वह खुशी-खुशी महल की तरफ भाग पड़ी। महल पहुंचकर हांफती हुई माता बाछल से बोली अब हमारे दु:खों का अन्त हो गया है। आप को गुरु जी की जोत जलाना सफल हुआ गुरु जी अपने चौदह सौ चेलों के साथ नौलखे बाग में पधार गये हैं तथा उनकी असीम कृपा से सुखा बाग हरा भरा हो गया है हर तरफ फूलों एवं फलों की सुगंध मन को मोह रही है, कुएं में मीठा-शीतल जल भर आया है। दासी के अनुग्रह पर माता ने जब सबसे ऊंची अटारी के झरोखे से देखा तो दंग रह गई तथा मन ही मन गुरु गोरक्ष नाथ जी का गुणगान करने लगी। तथा खुश होकर मूंगादे को अपने गले की अनमोल माला दे डाली।
माता बाछल का मन गुरु गोरख नाथ जी के दर्शनों के लिए अधीर हो उठा राजा जेवर वन में गये हुए थे इसलिए माता बाछल पति की अनुपस्थिति में अपनी सास राजमाता रामकौर से आज्ञा लेने के लिए गई तो माता ने उन्हें समझाते हुए कहा की आप राज्य में ढिंढोरा पिटवा दो की साधु-सन्तों को प्रथम भिक्षा महल से ही दी जाएगी, जो भी व्यक्ति इस आदेश की अनुपालना करेगा उसे राजदंड दिया जायेगा। इससे ये होगा कि घर बैठे ही सन्तों के दर्शन हो जाऐंगे।
माता बाछल ने राज्य के सज्जन, पंच, सरपंच सेठ-साहूकार, तथा गणमान्य व्यक्तियों को बुला कर सलाह उपरान्त निर्णय लिया कि सभी साधु-सन्त भिक्षा महल से ही लेंगे तथा जिस किसी को भी सेवा सामग्री के लिए जो भी दान देना है वह राजभंडार में जमा करवा सकता है। क्योंकि माता बाछल नही चाहती थी कि उनके किसी भी निर्णय से नगरवासी आहत हों। तद्उपरान्त राज्य में ढिंढोरा पिटवा दिया गया कि साधु-सन्तों को प्रथम भिक्षा महल से ही दी जाएगी।
गुरु गोरक्ष नाथ जी ने अपने प्रमुख शिष्य सन्त औघड़नाथ को आज्ञा दी कि – तुम नगर में जाकर भिक्षा मांग कर लाओ, परन्तु भिक्षा में केवल अन्न ही लेना और वह भी बच्चों का जूठा। सन्त औघड़नाथ अपने गुरु भाईयों के संग नगर में भिक्षा के लिए पहुंच गये, परन्तु जब किसी भी घर से जब भिक्षा नहीं मिली तो वे हताश हो उठे इतने में उन्हें बताया गया की आपको भिक्षा राज भवन से ही मिलेगी। सन्त औघड़नाथ अपने गुरु भाईयों के संग राजमहल पहुंच कर अलख लगाया। अलख निरंजन का शब्दघोष जब राजमहल में हुआ तो माता बाछल कि खुशी का ठिकाना नहीं रहा माता बाछल ने दासी के हाथ हीरे-मोतीयों से भरा थाल सन्तों की सेवा में भिजवा दिया।
दासी के हाथों में हीरे-मोतियों से भरा थाल देख संत औघड़नाथ बोले हे माई ये कंकर पत्थर किस लिए उठा लाई हो, ये हमारे किसी भी काम के नहीं है, सन्तों की बात सुन दासी नें कहा कि इन चीजों की कीमत तुम क्या जानों तथा शेखी-बघारने लगी। इस पर सन्त औघड़नाथ जी ने गुरु जी का ध्यान करके अपनी झोली को थोड़ा सा टेढ़ा कर दिया जिससे वहां पर हीरे-मोतियों का ढेर लग गया। दासी घबरा गई तथा सोचने लगी कि जिस गुरु के शिष्य इतने करामाती हैं वह गुरु कैसे होंगे, महारानी की मनोकामना जरुर पूरी होगी तथा राजमहल में किलकारियां गुजेंगी।
जब दासी को महल भिक्षा देने गये काफी समय हो गया तो माता बाछल अधीर हो उठी तथा खुद डियोडी पर जा सन्तों के दर्शन किये तथा दासी के हाथों में हीरे-मोतियों से भरा थाल तथा साथ ही नीचे लगा हुआ हीरे-मोतियों का ढेर देख कर तुरन्त समझ गई कि दासी ने जरुर कोई अनुचित बात की होगी जिससे सन्तों ने चमत्कार स्वरूप हीरे-मोतियों का ढेर लगा दिया है। माता बाछल ने जब उनसे विनती करते हुए आग्रह किया कि वे भिक्षा ग्रहण कर उन्हें कृतार्थ करें। माता के बचन सुन सन्त औघड़नाथ बोले माता जी हमें तो गुरु जी का आदेश है कि हमें मात्र भिक्षा स्वरूप अन्न ही चाहिए और वब भी बच्चों का जूठा।
माता बाछल के सब्र का बांध टूट गया तथा वह फूट-फूट कर रोने लगी और बोली मेरे तो कोई बच्चा नहीं है तुमने मुझे माता कहा है इसलिए तुम मेरे बच्चे समान हो तुम्हें ही मेरी लाज रखनी होगी। हमें एक महात्मा जी ने गुरु गोरक्ष नाथ जी की जोत जलाने के लिए कहा था और आश्वासन दिया था कि एक दिन गुरु गोरक्ष नाथ जी अपने चौदह सौ शिष्यों के साथ इस नगरी में आएंगे, सुखे हुए बाग को हरा-भरा करके तुम्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान देंगे। उनके द्वारा बताई हुई एक बात तो सत्य हो चुकी है दुसरी बात जिसके लिए मैंने सच्चे मन से गुरु जी की जोत जलाई है कृपया मुझ दुखियारी का दुख हरो। मेरी दासी द्वारा किये गये व्यवहार के लिए मैं लज्जित तथा क्षमाप्रार्थी हूं।
रानी बाछल का विलाप देख सन्त औघड़नाथ का हृदय द्रवित हो उठा तथा वे माता बाछल को समझाते हुए बोले जब आप गुरु जी की शरण में आ ही गई हो तो धीरज रखिये। आप की मनोकामना अवश्य पूरी होगी मैं गुरु जी की आज्ञा का उल्लंघन तो नहीं कर सकता उनका आदेश है कि पुत्रवती नारी के हाथ से ही भोजन स्वीकार करना। परन्तु मेरे पास एक उपाय है आप स्वयं भोजन लेकर नौलखे बाग में चलें गुरु जी नाराज हुए तो मैं उन्हें मना लूंगा।
माता बाछल अपनी सास राजमाता रामकौर से आज्ञा पाकर भण्डारे की व्यवस्था में लग गई। भण्डार तैयार करवा माता अपनी सखी-सहेलियों, दासियों सहित नौलखे बाग में गुरु गोरक्ष नाथ जी की सेवा में उपस्थित हो गई। इतनी मात्रा में तरह-तरह के पकवान देख गुरु गोरक्ष नाथ जी नें औघड़नाथ से पूछा ये कौन नारी है जो भण्डारे का सामान लेकर यहां आई है। सिर निवा कर दोनो हाथ जोड़ सन्त औघडनाथ जी ने कहा – गुरुदेव ये ददरेवा नगर की महारानी बाछल आपकी परम भक्त है जो वर्षों से आप की आराधना कर रही थी तथा आपके ददरेवा नगरी में आने का इन्तजार कर रही थी हम सबके लिए बड़ी ही श्रद्धा से भोजन लाईं हैं। इतना सुनते ही गुरू गोरक्ष नाथ जी ने आंखें बंद कर दोनों हाथों की हथेली बजाई। जिसके प्रभाव से धुनी के सामने दुध की नदी बह निकली जो एक तालाब के रूप में आज भी मौजूद है तथा गौरक्ष गंगा के नाम से प्रसिद्ध है। चमत्कार देख सभी लोग दंग रह गये तथा नौलखा बाग गुरु गौरक्ष नाथ जी के जैकारों से गुंज उठा। गुरु गोरक्ष नाथ जी ने भोजन सामग्री को भगवान का भोग लगाने उपरान्त औघड़नाथ जी को आज्ञा दी की पहले एक-एक चम्मच खीर सभी संतो को खीर परोस दो।
संत औघड़नाथ जी ने जब खीर को देखा तो उनके मन में लालच आ गया कि कहीं वह खीर से वंचित न रह जाएं। यह सोचकर उन्होंने अपने लिए पहले ही खीर बचाकर रख ली। गुरु गोरखनाथ जी तो जानी-जान थे परन्तु वह समय की लियाकत को देखते हुए चुप रहे जब सारी संगत ने खीर का सेवन कर लिया उसके उपरान्त भी बहुत खीर बच गई तो गुरु गोरक्ष नाथ जी ने औघड़नाथ जी से कहा कि वे भी अपने लिए खीर परोस लें, तब औघड़नाथ जी ने बताया कि मैंने अपने लिए खीर पहले से ही अलग रख ली है। इतना सुनते ही गोरक्ष नाथ जी को गुस्सा आ गया और उन्होंने धूनी से चिमटा उठा कर पांच-सात चिमटे औघड़नाथ जी की पीठ पर जमा दिये। औघड़नाथ जी दर्द कराह उठे तो गोरक्षनाथ जी ने उन्हें फटकार लगाते हुए कहा कि इससे अच्छा तो गृहस्थी ही बना रहता, तो संत समाजा को लज्जित न होना पड़ता। संत के जीवन का तात्पर्य तो त्याग है। एक तो मेरे आदेश की अवहेलना करते हुए बाँझ के घर से भोजन ले आया, फिर ये बदमाशी।
गुरु गोरक्षनाथ जी का गुस्सा और औघड़नाथ जी को पिटता देख माता बाछल की आँखों से अश्रु धारा बह निकली। जिसे देख औघड़नाथ जी द्रवित हो उठे तथा अपने गुरुदेव के चरण पकड़ विनती करने लगे हे गुरुदेव अपने मेरी पिटाई की वह मेरी गलती थी परन्तु आप का ही उपदेश है कि दुखियों पर दया करना संत का परम् धर्म है। मेरी आपसे विनम्र विनती है कि माता बाछल ने वर्षो आपकी दोनो वक्त जोत लगा सेवा की है इन्हीं के तपोबल से आज हम इस मरुभूमी में आये हैं। आप कृपाकर इसे पुत्र रत्न का वरदान दे, इनकी सेवा को सार्थक करें।
संत औघड़नाथ जी की दयालुता देख गुरुगोरक्ष नाथ प्रसन्न हो गये तथा अपनी दोनों आंखे बंद कर समाधिस्थ हो गये। माता बाछल आश्चर्य चकित देखती रह गई तथा औघड़नाथ जी गुरु जी को समाधिस्थ देख पहरा देने लगे।
गुरु गोरक्षनाथ के सामाधिस्थ हो जाने पर माता बाछल चिन्तित हो गई तथा सोचने लगी की पता नहीं गुरु गोरक्ष नाथ की सामाधि कब खुले। वह तन मन से गुरु सेवा को समर्पित हो गई तथा अपने लम्बे खुले बालों से गुरु जी के धुने के आसपास सफाई करती तथा संतों के खान-पान का प्रबन्ध करना अपनी दिनाचार्य में शामिल कर लिया इस प्रकार सेवा करते हुए माता बाछल को बहुत समय हो गया माता बाछल बहुत कमजोर हो गई तथा उनका फूल सा चेहरा मुरझा गया। योगेश्वर श्री गोरक्ष नाथ जी माता की भक्ति से प्रसन्न हो गये तथा अपने नेत्र खोल महारानी बाछल की तरफ देख कर बोले भूख लगी है कल सुबह अपने हाथ से बना भोजन लेकर आना। उसके बाद ही हम तुम्हें वरदान देंगे। महारानी बाछल गुरु जी के मुख से इस प्रकार के वचन सुन फूले न समाई तथा प्रसन्नचित हो गुरु जी को प्रणाम कर महल की ओर प्रस्थान किया।
महारानी बाछल के चेहरे पर प्रसन्नता देख महारानी बाछल की बहन काछल को बहुत आश्चर्य हुआ। वह सोचने लगी की मेरी बहन जो सदा उदास रहती थी आज इतनी खुश क्यों है। यह सोचकर उसने महारानी बाछल से इस प्रसन्नता का कारण पुछा। महारानी बाछल ने खुशी-खुशी विस्तार से सारा वृतान्त कह सुनाया। महल में सभी ओर प्रसन्नता छा गई।
परन्तु रानी काछल खुद को ज्यादा देर प्रसन्न न रख सकी तथा सोचने लगी कि यदि बाछल के सन्तान हो गई तो सारे राज्य का मालिक उसका बेटा बन जायेगा तथा महारानी बाछल का मान सम्मान बढ़ जायेगा, वह राजमाता बन जायेगी। इस प्रकार के विचारों से काछल के मन में कपट आ गया तथा वह सोचने लगी कि इस अवसर का लाभ उठाया जाये। बहुत विचार करने पश्चात उसने सोचा कि हम दोनों बहनें देखने में बिलकुल एक सी हैं और अगर मैं बाछल के वस्त्र धारण कर लूं तो कोई भी हम में फर्क नहीं कर सकता। क्यों न मैं स्वयं बाछल के स्थान पर गुरु जी के लिए रात के समय ही महारानी के वस्त्र धारण कर भोजन ले जाऊँ।
इस प्रकार के विचार मन में आते ही रानी काछल महारानी बाछल के महल में आ गई और विनय करने लगी की उसे पुजा करवानी है तथा परोहित जी ने पुजा की सफलता के लिए किसी अन्य के वस्त्र ग्रहण करने का विधान बताया है इसलिए आप मुझे अपने वस्त्र दे दें। महारानी बाछल को आभास ही नहीं हुआ कि रानी काछल उनके साथ कपट कर रही हैं। तथा खुशी-खुशी अपने वस्त्र काछल को दे दिये। वस्त्र मिलते ही काछल की खुशी का ठिकाना न रहा तथा वह अपने महल में आकर शिघ्रता से भोजन तैयार करने में जुट गई।
इसके उपरान्त की कथा को लिखने में प्रयासरत हैं।
प्रसारित कथा गोगा जी के विभिन्न उपलब्ध साहित्यों, भक्त तथा लोक गायकों की धारणाओं पर आधारित है। इस लेखन प्रयास में हुई त्रुटियों के लिए मैं क्षमा पात्र हूँ।